◆ संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार – 1984
◆ पद्मभूषण – 1992
◆ कोणार्क सम्मान – 1992
◆ पद्मविभूषण – 2000 ◆ उस्ताद हाफ़िज़ अली खां पुरस्कार – 2000
◆ दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार – 2000
” नाइट ऑफ दी आर्डर ऑफ़ आर्ट्स एन्ड लैटर्स ” इन सब के अतिरिक्त कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार …
ये सारे पुरस्कार एक ऐसे व्यक्ति ने प्राप्त किये हैं जिसनें अपने समर्पण से बाँसुरी वादन को भारत ही नहीं अपितु विश्व में एक पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाई । जिन्होंने भारतीय फिल्मोद्योग को संगीत के रूप में कुछ ऐसे नगीने दिए जो सदाबहार हैं । हम बात कर रहे हैं पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी की ।
1 जुलाई 1938 को इलाहाबाद ( अब प्रयागराज ) में एक मलखम्ब के घर एक बाँसुरी का जन्म हुआ । हां ! ये सुनने में थोड़ा अजीब लगे लेकिन आगे की कहानी पढ़ कर आप समझ जाएंगे कि ऐसा क्यों कहा गया । पिता श्रीलाल चौरसिया एक पहलवान थे । और चाहते थे कि पुत्र हरिप्रसाद भी इसी विद्या में पारंगत हो , पुत्र ने कुछ समय तक पिता की इच्छा पूरी करने की कोशिश भी की , लेकिन कहीं भीतर हरिप्रसाद जी यह जानते थे कि उनका जन्म पहलवानी करने के लिए नही हुआ है ।
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी आज विश्व प्रसिद्ध है । और इस मुक़ाम तक आते – आते वे लगभग सारे सुख ( प्रसिद्धि से लेकर संपदा तक ) भोग चुके होंगें , लेकिन दुखों के दर्द से भी वे खूब दो – चार हुए हैं । माँ की मृत्यु जब हुई तब वे लगभग 5 वर्ष के थे और माँ की मृत्यु से कुछ समय पहले वे अपने भाई शिवप्रसाद को भी खो चुके थे । मृत्यु का अर्थ जाने बग़ैर करीब से देखना , किसी के भी बचपन को अस्त – व्यस्त कर सकता है । किंतु ये हरिप्रसाद जी का जीवन की घटनाओं के प्रति स्वीकार भाव ही था , जो वे भ्रमित नहीं हुए और अपने प्रयासों द्वारा वह स्थान प्राप्त किया जो किसी साधारण व्यक्ति के लिए अकल्पनीय है । माँ की असमय मृत्यु के बाद पहले हरिप्रसाद जी की भाभी और फिर उनकी बड़ी बहन ने कुछ समय तक उनकी देखभाल की ।
हरिप्रसाद जी ‘ गायन ‘ का भी शौक रखते थे । लेकिन किसी कारणवश वे इस शौक को विस्तार न दे सके । फिर उन्होंने बाँसुरी को अपनी भावनाओं के प्रस्तुतिकरण के लिए चुना , क्यों कि इसमें वे गायन और वादन दोनों कर सकते थे । एक समय ऐसा भी था जब पंडित जी सरकारी नौकरी भी करते थे । लेकिन संगीत का विचार और सम्मोहन उन्हें बार – बार अपनी तरफ खींचता रहता था । इसके परिणामस्वरूप उन्होंने तय किया कि अब जीवन को इसी दिशा में आगे ले जाना हैं । जब वे सरकारी सेवा में थे तब साथ – साथ बाँसुरी वादन भी सीख रहे थे , और उनको शिक्षा दे रहे थे ‘ भोलानाथ प्रसन्ना ‘ जो संगीतकार थे और साथ ही AIR ( आल इंडिया रेडियो ) में भी नौकरी करते थे । जिसका फायदा बाद में हरिप्रसाद जी को भी मिला । वे कटक के रेडियो स्टेशन में नौकरी भी करने लगे और प्रस्तुति भी देने लगे ।
पंडित जी की बाँसुरी के संगीत की सुगंध अब फैल रही थी , इसके दो कारण थे । एक तो बेहतरीन वादन और दूसरा मनोरंजन और संचार के लिए रेडियो का ही एकमात्र साधन होना , क्यों कि ये लगभग हर वर्ग के लोगों के पास उपलब्ध होता था । और इसी के माध्यम से हरिप्रसाद जी सभी संगीत प्रेमियों के दिलों में जगह बनाते जा रहे थे । थोड़े समय बाद कुछ कारणों से उनका स्थानांतरण कटक से मुम्बई कर दिया गया । शुरू में हुई कुछ असुविधाओं के बाद उन्हें मुम्बई शहर रास आने लगा । कटक में जो उन्होंने प्रस्तुतियां दी थी उनके फल उन्हें मुम्बई में मिलने लगे । दरअसल उनके बाँसुरी वादन और गायन से बहुत से लोग प्रभावित थे । जिनमें कुछ संगीतकार भी थे । उनमें से किसी एक ने उन्हें किसी फिल्म के गाने में बाँसुरी वादन का काम दिलवाया । फिर एक के बाद दो और दो के बाद तीन उन्हें कई जगह काम मिला । कुछ समय बाद वे फिल्मों के साथ – साथ नाटकों में भी बैकग्राउंड संगीत देने लगे । अपने कौशल के बूते वे धीरे – धीरे सभी प्रमुख संगीतकारों कि पहली पसंद बन गए । इसी वजह से उनकी आल इंडिया रेडियो की सरकारी सेवा बाधित हो रही थी । कुछ समय पश्चात उन्होंने किसी एक के चुनाव का निर्णय लिया और नौकरी से त्यागपत्र दे दिया ।
सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद कुछ अनअपेक्षित परेशानियों का सामना करना पड़ा । लेकिन वे इससे उबर गए और उन्होंने दूसरी भाषाओं की फिल्मों जैसे – ओड़िया , दक्षिण भारतीय आदि फिल्मों में भी संगीत दिया । उन्होंने अपने संगीत प्रेमियों को कई गैर फिल्मी अल्बम जैसे – म्यूजिक बियांड बैरियरस , एटर्निटी , नथिंग बट विंड , साऊंड ऑफ साइलेंस आदि भी दिए ।
अगर जिक्र चल रहा हो हरिप्रसाद चौरसिया जी के जीवन का तो एक ऐसे व्यक्ति का नाम लिया जाना लाज़िमी है , जिसे वे अपने भाई के समान मानते हैं और उनके साथ उनकी जोड़ी भी बनी – संतूर वादक शिवकुमार शर्मा जी । इन दो दिव्य संगीतकारों की मुलाक़ात एक यूथ फेस्टिवल में हुई थी । जब वे दोनों वहां प्रस्तुति देने गए थे । बाद में इनकी जोड़ी शिवहरि के नाम से प्रसिद्ध हुई । इस बेहतरीन जोड़ी ने चांदनी , डर , लम्हे , सिलसिला आदि जैसा बेमिसाल संगीत दिया जो बनने के 35 – 40 साल बाद युवापीढ़ी को भी गुनगुनाने पर मजबूर कर देता है । हरिप्रसाद चौरसिया जी अब संगीत निर्देशन नही करते । वे 1993 में इससे सन्यास ले चुके हैं । वे अपना अमूल्य समय , संगीत , अनुभव उन विद्यार्थियों के साथ मुंबई के वृंदावन गुरुकुल में बांटते हैं जो उन्ही की तरह संगीत के लिए समर्पित हैं । और इसके लिए वे किसी भी छात्र से किसी प्रकार का शुल्क नही लेते ।
दोस्तों ..
भारतीय संगीत के आकाश में सैकड़ो सितारे है , लेकिन कुछ ही सितारे ऐसे है जो .. आने वाली पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत से रूबरू कराने की काबिलियत रखते है । श्री हरिप्रसाद चौरसिया जी उन्ही में से एक है । और हम सब के लिए प्रेरणास्रोत है और रहेंगे । उनका जीवन परिचय इस बात का प्रमाण है कि जहां चाह होती है वहां राह भी निकल आती है
उम्मीद है आपको ये पोस्ट पसंद आएगी , हमेशा की तरह इस बार भी आपकी शिकायतों और सुझावों का इंतजार रहेगा ।
धन्यवाद..