समानता का अधिकार उनका जन्मसिद्ध अधिकार है अगर एक महिला नहीं होती तो मैं यह पोस्ट नहीं लिख पाता । और अगर एक महिला नहीं होती तो आप यह पोस्ट नहीं पढ़ रहे होते , आपको और मुझे इस दुनिया मे लाने वाली एक महिला ही है । इस सत्य को समझें कि वह है तो हम हैं ।
वह हर जदोजहद से जूझती है , वह अपनी गलतियों से सीखती है , वह लाड़ली भी है , वह चहेती भी है , वह सिसकती भी है , वह दहाड़ती भी है , उसके भीतर तूफ़ान जैसा शोर भी है , और महासागर जैसी खामोशी भी , वह उपेक्षा भी सहती है और मोह भी करती है …..
वह एक औरत है , जो पुरूष के जितनी ही योग्य और सम्मानित होने के बाद भी संकुचित सोच वाले समाज में अपने समानता के अधिकार के लिए लड़ती है । और हर बार साबित करती है । कि वह एक कदम आगे हो सकती है , लेकिन कमतर नही !
अंतरराष्ट्रीय महिला समानता दिवस भी यही बताने की कोशिश करता है । इसकी शुरुआत कब और कहां हुई आइए जानते हैं … इसकी शुरुआत 1893 ईस्वी में हुई थी । और इसके शुभारंभ का श्रेय न्यूजीलैंड को जाता है । दोस्तों … नाम सुनकर और पढ़ कर ही समझा जा सकता है कि इसे मनाने का क्या कारण है । और अक्सर बाहर या घरों में हमें इसके उदाहरण गाहे – बगाहे दिख जाते हैं ।
क्यों ज्यादातर लोग महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं देते ??
● लैंगिकता वादी समाज और समानता का अधिकार
लैंगिकतावादी समाज में समानता के अधिकार सबसे निचले पायदान पर आता है । स्वतंत्र मानसिकता वाले लोगों को छोड़ दें तो ज्यादातर लोग एक ऐसे समाज में जन्म लेते , बड़े होते हैं और रहते हैं । जहां यह सोच काम करती है कि शिक्षा , खेल , प्रशासन आदि में शुरू से ही पुरुषों का वर्चस्व रहा है तो महिलाएं कैसे आगे आ सकती हैं ।
वास्तविकता – महिलाओं ने पहले भी हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी , और आज भी उतनी ही खूबसूरती से निभा रही हैं । चाहे वह स्वर्गीय सुभद्रा कुमारी चौहान जी के रूप में हो स्वर्गीय श्रीमती सुषमा स्वराज जी के रूप में , चाहे वह भारत को सुंदरता में पहला स्थान दिलाने वाली प्रथम महिला रीता फारिया हो या अंतरिक्ष में जाने वाली कल्पना चावला हो ।
● टेलीविजन / फिल्में ‘ समानता के अधिकार ‘ को कितना सहयोगी बनाते है
मनोरंजन का जादुई पिटारा यानी टेलीविजन ने महिलाओं को मुख्य किरदार के रूप में घर – घर में तो पहुंचाया । लेकिन ज्यादातर मामलों में पुरुषों द्वारा संचालित या अपने अधिकारों के लिए रोते – बिलखते ही दिखाया । और कुछ कार्यक्रमों और फिल्मों ने तो उन्हें सिर्फ भोग और विलास की वस्तु के रूप में ही प्रदर्शित किया ।
वास्तविकता – वे दिखाते हैं क्योंकि हम देखना चाहते हैं । एक बहुचर्चित टीवी सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी .. के एक किरदार ( मिहिर) के मरने पर महिलाओं के बड़े समूह को मानों 440 वोल्ट का झटका लगा था , और उस किरदार को पुनर्जीवित करने की अपील की गई थी । किंतु कभी यह अपील नहीं की गई कि पीटी ऊषा या रानी पद्मावती पर कोई ज्ञानवर्धक कार्यक्रम बनाया जाए । कहीं ना कहीं हम खुद महिलाओं को दुर्बल किरदारों में देखने की इच्छा रखते हैं , उसी प्रकार कार्य करते हैं और फिर वैसे ही परिणाम प्राप्त होते है ।
● दहेज प्रथा – हां समाज का एक सुशिक्षित वर्ग यह मानने लगा है , कि दहेज लेना और देना गलत है । लेकिन क्या समाज के एक छोटे हिस्से के मान लेने से परिवर्तन संभव है ?? क्या मुट्ठी भर चावल से पूरे परिवार का पेट भरा जा सकता है ?? नहीं ! हर वर्ष लाखों मामले दर्ज होते हैं । और सैकड़ों लड़कियों को जला दिया जाता है या और किसी माध्यम से मौत की नींद सुला दिया जाता है । और इसका कारण होता है दुल्हन द्वारा वर पक्ष की इच्छा अनुसार पर्याप्त दहेज ना लाना यह बिल्कुल ना लाना ।
सवाल उठता है कि क्या एक संस्कारी , शिक्षित , गृह कार्य दक्ष , वधु के साथ कुुुछ धनराशि या वाहन आदि सामान दे कर माता – पिता क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?? कि उनकी बेटी उन पर बोझ है ?? जिसे वह लड़के वालों पर डालकर और साथ में कुछ धन देकर उसे अपने सर से उतार रहे हैं । और धन एवं सामान देकर इस बोझ को अपने ऊपर लेने के लिए लड़के वालों को मूल्य चुका रहे हैं ?? क्या वह कोई भेड़ बकरी है या कोई अन्य वस्तु है जिसकी विवाह से पहले या विवाह के बाद कीमत या बोली लगाई जाती है ??
वास्तविकता – इस घटिया मानसिकता को पोषण . . . आकाश में उड़ने वाले पंछी और पानी में तैरने वाली मछलियां नहीं देती । हम स्वयं इसके लिए जिम्मेदार हैं । अगर सास अपनी बहू को बेटी और बहू अपनी सास को मां का दर्जा दे तो क्या इस तरह की घटनाओं का अंत नहीं होगा ??? ( कई बार जब दो पीढ़िया में सामंजस्य नहीं बैठ पाता तो टकराव की स्थिति जन्म लेती है , लेकिन जिन्हें संबंध निभाने की कला आती है वह टकराव को तालमेल में बदल देते हैं । लेकिन तालमेल बैठाने का मतलब यह नही है कि आप अपने आत्म-सम्मान को खो दें और गलत को भी सही कहे । गलत का विरोध करें लेकिन इस अंदाज में की संबधो में खटास ना आये ।
कारण ढेर सारे हैं लेकिन कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ही प्रकाश डालकर यह बताया जा रहा है । कि एक तरफ हम शराब पी रहे हैं और दूसरी तरफ से शराब से होने वाले दुष्परिणामों से बचने के लिए उपचार ले रहे हैं । एक तरफ हम यह सिद्ध करने पर तुले हैं कि महिला और पुरुष एक समान है और दूसरी तरफ खुद ही विभिन्न माध्यमों से महिलाओं को कमजोर सिद्ध करने पर तुले हैं इसके परिणाम क्या होंगे ?? आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं । एक समय था जब विश्व में बहुपत्नी व्यवस्था थी ।
इसका कारण था यौन स्वच्छंदता , युद्ध , विपत्ति काल एवं अन्य शारीरिक श्रम के लिए पुरुषों की आवश्यकता । यह तभी संभव था जब कोई पुरूष एक से अधिक स्त्रियों के साथ यौन क्रीड़ा करके संतानोत्पत्ति करें । विशेषकर पुत्र और पुत्र को जन्म देने वाली महिला का भी विशेष सम्मान होता था । शायद बेटे को बेटी से अधिक महत्व देने की विचारधारा ने भी तभी से जन्म लिया ।
दुर्भाग्यवश यह सोच आज भी ज्यादातर स्थानों पर कायम है । लेकिन समय के साथ महिलाओं ने अपने महत्व को जगजाहिर किया । उसने दुनिया को बताया कि वह सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए नहीं है । वह कवि , लेखक ,योद्धा , खिलाड़ी ,राजनेता और अंतरिक्ष यात्री भी बन सकती है । उसने अपनी भूमिका को हर बार स्पष्ट और सिद्ध किया है । लेकिन क्या समान होने का सम्मान हम उसे देते हैं ??
हां और नहीं भी !
अगर हां .. तो इसका अर्थ है कि हमारी परवरिश एक संस्कारी एवं सभ्यता से परिपूर्ण माहौल में हुई है ।
अगर नहीं .. तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है ! और दो प्रश्न खड़े करता है ।
(1 ) – हमें विरासत में क्या मिला ? (2 ) – हम विरासत में क्या देंगे ? क्योंकि जब संस्कार और सभ्यता हमें ही नहीं मिली तो हम आने वाली पीढ़ी को क्या देंगे ?
हमारे उत्तरदायित्व
एक पुत्र के रूप में : – अगर एक महिला नहीं होती तो मैं यह पोस्ट नहीं लिख पाता । और अगर एक महिला नहीं होती तो आप यह पोस्ट नहीं पढ़ रहे होते , आपको और मुझे इस दुनिया मे लाने वाली एक महिला ही है । इस सत्य को समझें कि वह है तो हम हैं ।
एक पति के रूप में : – प्यार और तकरार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । हम सब अक्सर बुरे दौर से गुजरते हैं और खराब मूड का सामना करते हैं । फल स्वरूप पत्नी के साथ वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं , जो तू -तू मैं – मैं या कहा – सुनी में बदल जाते हैं । इसे अहंकार का प्रश्न न बना कर अगर प्रेम – पूर्ण तरीके से अपने विचार या अपनी समस्याओं को अपनी जीवनसंगिनी के साथ साझा किया जाए तो न सिर्फ़ परिवार कलह और टूटने से बच सकता है बल्कि प्रेम और विश्वास और गहरा हो जाता है । समस्या अगर बड़ी है तो हिंसक होने की बजाए किसी मनोचिकित्सक या मैरिज काउंसलर की सलाह लेना ज्यादा बेहतर विकल्प है । अगर संभव हो तो देखें और मंथन करें कि असहमति और मतभेदों की वजह क्या है ?? उसका समाधान तलाशें । और एक महत्वपूर्ण बात का ध्यान रखेें ” हम ” मैं और तुम से ज्यादा खूबसूरत है “
एक पिता के रूप में :- अगर आप एक लड़की के पिता है तो भी आप उतने ही भाग्यशाली हैं जितने एक पुत्र के पिता होने पर होते । ध्यान रखें – एक लड़की के लिए उसका पिता ही पहला हीरो या पहला विलेन होता है । यह निर्भर करता है एक पिता के आचरण और परिवार के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को निभाने एवं प्रत्येक सदस्य की भावनाओं को समझने एवं सम्मान करने की कला पर । एक पिता को चाहिए कि व्यस्तता का बहाना न बनाकर बेटी को उतना ही समय एवं अधिकार दे जितना वे बेटे को देते हैं । किशोरावस्था में अक्सर बेटियां अपने शरीर में होने वाले बदलावों को समझ नहीं पाती और ना ही किसी से कह पाती हैं । ऐसे में बेशक माँ से बेहतर हमदर्द और मददगार मार्गदर्शक कोई नहीं होता लेकिन अगर पिता का दोस्ताना व्यवहार ना हो तो हीन – भावना और पुरुषों के प्रति गलत धारणा जन्म ले सकती है । जो उसके भविष्य के लिए नुकसानदायक होती हैं । जरूरत है उन्हें समानता के अधिकार का महत्व समझाने की ।
एक भाई के रूप में : – बहनें ईस्वर द्वारा प्रदान किया गया आपको एक बेहद खूबसूरत तोहफा है और वरदान है । यह कहने के साथ – साथ की “ मैं सदैव तुम्हारी रक्षा करूँगा , हर विपत्ति में तुम्हारा साथ दूंगा , ” उसे आत्मनिर्भर बनाने में भी अपना हर सम्भव योगदान देना चाहिये , यही एक भाई के रूप में अपनी बहन को दिया जाने वाला सबसे अच्छा उपहार है ।
एक दोस्त के रूप में : – एक महिला मित्र का आपके पास होना न सिर्फ आपको महिलाओं केे प्रति सही सोच विकसित करने में मदद करता है बल्कि समाज के प्रति आपकी सोच में भी बदलाव करता है । हमें यह समझना चाहिए कि लड़के और लड़की में सिर्फ लिंग का भेद है । जो प्रेम और सम्मान हम अपने लिए चाहते हैं वह हमें अपनी महिला मित्रों को भी देना चाहिए ना की ओछी मानसिकता का परिचय देकर उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना चाहिए । अगर पुरुष अपने अच्छे चरित्र का परिचय दे तो महिलाएं सबसे अच्छी मित्र साबित हो सकती है ।
दोस्तों…. दुनिया में कोई भी मनुष्य 100 ℅ सम्पूर्ण नही होता , चाहे वह स्त्री हो या पुरूष । कमियां , बुराइयां दोनों में होती है । कुछ जगहों और मामलों में सिर्फ पुरूष ही नही महिलायें भी दोषी होती है । हमें यह समझना चाहिए कि महिला और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं । यह श्रेष्ठतम की लड़ाई नही है । बल्कि यह स्वीकारता का विषय है , स्वीकारता इस बात की कि यहां कोई किसी से कम नही है , दोनों को ही समान अधिकार मिलना चाहिए एक है तो ही दूसरे का महत्व है ।
कल्पना कीजिए कि इस विश्व मे सिर्फ महिलायें ही महिलायें हो या सिर्फ पुरूष ही पुरूष हो तो क्या होगा ??
मैं इस प्रश्न के उत्तर के साथ – साथ आपके सुझावों और शिकायतों का भी इंतजार करूँगा ।
उम्मीद है आप को यह पोस्ट पसंद आएगी ।
धन्यवाद 😊🙏